निवेश में नुकसान पर वित्तीय संस्थानों का बहाना – आपने थोड़ा धैर्य नहीं रखा

नई दिल्ली/डॉ.अतुल कुमार : एक अनुमानित आंकड़े के अनुसार पूजीं बाजार में जोखम के मद्देनजर निवेश में आरम्भ से ही दूर भारतीयों ने दो लाख करोड़ का निवेश एसआईपी के माध्यम किया है और अभी भी विभिन्न योजनाओं के तहत वित्तीय संस्थान हर माह दो सौ अरब रुपये का निवेश मंगा रहे है। धन की यह आमद उस राशि से अलग है जो संस्थान या निजी फर्म सीधे पूजीं बाजार में दे रही है। वर्तमान में मात्र तीन फीसदी या लगभग चार करोड़ परिवार के ग्यारह करोड़ डीमेट खाते ही पूंजी बाजार में सक्रिय है।
भारतीयों ने मूलतः निवेश स्वर्ण आभूषण या संपदा में रखा। इसमें एक मुश्त लगने वाली भारी रकम की बचत भी अनुपयोगी नकदी में रही। महिलाऐं तो नगद ही रखती और सम्पन्न वर्ग ने भी बैंकों में अधिक पैसा नहीं रखा। भले ही इससे रुपये का अवमूल्यन रूका मगर बड़े उद्यमों के व्यापार और अर्थव्यवस्था विकास के लिए निवेश निधि मिलना कठिन था। विकास में मुद्रा तरलता की जरूरत जैसे तमाम बिंदु पर गौर करते हुए भारतीय रिर्जव बैंक ने 1963 में चुनींदा आर्थिक नीति सलाहकारों को लेकर यूनीट ट्रस्ट ऑफ इंडिया के नाम से आरम्भ म्यूचूअल फंड निवेश पर आयकर छूट दे वेतन भोगी वर्ग को प्रेरित किया। अनभिज्ञ निवेशक कभी भी लाभ लक्षित निर्णय लेने की क्षमता नहीं पा सकता। जनता का एक तबका तब भी लुटा। यूनीट निवेश में आकर्षण का खेल जबरदस्त रहा। जब तक देय तिथि नहीं आती उन तीन सालों के लॉकइनटेन्योर में इनकी एनएवी काफी ऊँची दिखती मगर जब खुले बाजार में बेचने या पुर्नखरीद की तारीख आती तबका लाभ बैंक ब्याज दर समान ही मिला। इसके अलावा छोटे निवेशकों के साथ विक्रय के समय भारी बेइमानी अलग होती। उसका यूनीट बाजार दर पर कभी नहीं बिकता और जब तक वो समझता तक तक दाम गिर जाते।

सभी निजी कंपनी के म्युचुअल फंड का एनएवी नागरिकों के निवेश के समय बड़ा ऊँचा बताया जाता है। जैसे ही दो चार साल के माहवार निवेश या एकमुश्त रुपये का निवेश किये तीन या पांच साल हो जाता है तो उस कंपनी की एनएवी निवेशक को बड़े आकर्षक दामों के साथ तब तक बताये जाते है जब तक कि निवेशक की होल्ड की क्षमता बनी रहती है। ऐसे में जनता के पैसे से निवेश का फंडा जब सभी बैंकों ने सीख लिया तो उन्होंने भी म्यूचूअल फंड शुरू किये। प्रबंधकों की निजी कंपनीयां से गठजोड़ में लिए गये निवेश निर्णय से यूनिटस के लाभ में गिरावट होने पर शुरूआती दौर वाली लाभप्रद यूनीट की छवि जेबी संस्थान वाली बनी और अतंतः निवेशक दूर होने लगे। जब जनता के पास म्यूचूअल फंड की दास्तां खुल गयी और हर्षद मेहता काण्ड में करोड़ों नये निवेशक तबाह हो गये तो 1993 में नये नाम से ‘व्यवस्थित निवेश योजना‘ निकाल कर वेतनजीवी जनता के खून पसीने की कमाई से बचत को बढ़ाने के नाम पर डकार लिये बिना गटकने का फिर से वही खेल हुआ है।

वही पहले दावा किया जाता है कि व्यवस्थित निवेश योजना सभी तरह से सुरक्षित और केवल लाभ ही देगी। निवेशकों को प्रतीक्षा के खेल में लालच के साथ सिखाया जाता है कि वह अपने पोर्टफोलियो पर अच्छा पैसा कमा रहे हैं, और स्टॉक का मूल्यांकन बढ़ गया है परन्तु आखिरकार एक दिन जब बिक्री को मजबूर हो कर वेतनभोगी निवेशक निवेश का जो पैसा निकाल घर ले जाते हैं वो कागजी दर्शायी राशि के सामने काफी कमतर होती है। वेतन वर्ग निवेशक के पाई-पाई जोड़े पैसे से अतिरिक्त आय के लालच का सपने जगा कर वित्तीय संस्थान हरबार शीशी नयी, ठर्रा वही, के ढर्रे पर जमाधन का बेजा लाभ उठा रहे है। वेदना तो यही है कि लघु निवेशक को ईमानदारी से उसके धन का लाभ ना तो बैंक दे रहा ना अन्य वित्तीय संस्थान।